Aug 15, 2024, 10:07 AM IST

 किसी तवायफ का आखिरी मुजरा कब होता है?

Ritu Singh

मुजरा तवायफों से जुड़ा कहा जाता है लेकिन असल में ये एक नृत्य कला का नाम ही है. जो भारत में मुगल शासन के दौरान उभरा था.

मुजरा पारंपरिक रूप से महफ़िलों में आयोजित होते थे और इसे पेश करने वाली तवायफ कही जाती थीं.

मुगल काल में दिल्ली, लखनऊ, जयपुर जैसी जगहों पर मुजरा करने की परंपरा एक पारिवारिक कला थी और अक्सर मां से बेटी को दी जाती थी.

लेकिन क्या आपको पता है कि तवायफों के लिए आखिरी मुजरा क्या मायने रखता था.

असल में तवायफ बनने की तीसरी रस्म को ही अंतिम मुजरा या नथ उतराई रस्म कहा जाता था.

अंतिम मुजरा यानी इसके बाद तवायफ की बोली लगती थी और उसके बाद तवायफ फिर मुजरा नहीं करती थी.

जो सबसे ज्यादा कीमत देकर तवायफ खरीदता तो पूरी जिंदगी तवायफ उसके लिए समर्मित हो जाती थीं.

फिर तवायफ के लिए कभी महफिल नहीं सजती थी बल्कि वो तवायफ बोली लगाने वाले को खुश करने में लग जाती थी.